वो जो शाम गुजरी तुम्हारे संग
बड़ी अच्छी सी शाम थी।
सोचा था पता नहीं कैसे सामना
होगा तुमसे, कैसे तुमसे बातें करेंगे।
क्या हम पूछेंगे तुमसे और क्या तुम कहोगे।
बड़े कश्मकश में फंसे थे हम,
शुरू कहाँ से करें, इसी सोच में हम
डूबे रहे।
पता नही कब चाय का एक कप
दूजे और तीसरे कप में बदल गया
बातों का सिलसिला जो शुरू हुआ
तो खत्म करने का मन ही नहीं हुआ।
न तुमने टोका कहीं , न हम रुके,
सुनहरी शाम कब अन्धेरे में बदल गयी
पता ही नही चला।
आँखों में आँखें डाले, मुस्कराते हुए
हर बात पे तुम्हारा सिर हिलाना,
फिर चाय का कप हाथ पे लिए हमारी तरफ देखते हुए चुस्की लेना,
फिर मिलने का वादा करके हमारा हाथ अपने हाथ में लेके हल्के से दबाने की कोशिश, फिर छोड़ देना।
कुछ भी नही भूले हम । अब भी याद है वो जमाना।
राधा गौरांग